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«Смык  псов  и  кабанья  голова  на  стене,  вот  и  все,  что  осталось  в  Галиче  от  Романа  Мстиславовича  после  гибели.  Даже  сына  его  строптивые  бояре,  подзуживаемые  Володиславом  Кормильчичем,  из  княжества  прогнали.  На  Волыни  княжит  Данило.  Но  этот  —  вернется!  Чтоб  мне  подохнуть  без  покаяния,  если  не  вернется.  Этот  характером  и  отца  загнет.  Огонь,  орел!  Не  то,  что,  хоть  и  рассудительный,  но  слишком  мягкий  и  добрый  Василько.  Не  с  княжеским  норовом  уродился  младший  Романович.  Такому  только  в  митрополиты…  Видно,  всю  волю  и  упорность  только  старший  сын  унаследовал. 

Может,  с  оглядки  на  Данила  Романовича,  и  велел  Глеб  Зеремиевич  не  трогать  княжескую  псарню?  А  заодно,  и  его,  Опанаса,  оставили  бояре  при  ней,    как  прежде?»

Рядом  завозилась  Христина.  Садясь,  муж  обнажил  ей  плечи,  и  ночная  прохлада  потревожила  сон  женщины.  Опанас  бережно  укутал  периной  жену  и  стал  ногами  на  пол.

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Моложе  мужа  на  добрых  полтора  десятка  лет,  Христя  еще  и  теперь  была  писаной  красавицей.  Почему  остановила  она  свой  выбор  именно  на  нем?  Чем  пожилой,  нелюдимый  княжеский  псарь  приворожил  девичье  сердце,  в  Галиче  не  мог  понять  никто.  И  в  первую  очередь  сам  Опанас.  Христя  ж,  в  ответ  на  попытки  выведать  тайну,  заливалась  звонким  смехом  и  отшучивалась:  мол,  сердце  лучше  знает,  кто  ему  других  дороже  и  милее. 

—  Не  приведет  к  добру  эта  любовь,  —  шушукались  украдкой  слободские  бабы.  —  Ой,  не  приведет!  Боги  завистливы  и  никогда  не  дают  ничего  просто  так.  Ой,  как  бы  не  пришлось  горемычным,  заплатить  цену  гораздо  выше,  чем  дать  смогут.

Шушукались,  шушукались  да  и  накаркали.

Двадцать  лет  прожили  вместе  Опанас  и  Христина  душа  в  душу,  а  детский  лепет  так  и  не  раздался  в  их  доме.  Трижды  была  при  надежде  Христя,  трижды  радость  собиралась  постучаться  в  двери  к  Куницам,  но  —  так  и  не  смогла  ни  разу  доносить  дите  до  срока.  А  теперь  —  уже  и  вовсе  не  тяжелеет.  Может,  и  в  самом  деле  не  терпят  небожители  безграничного  человеческого  счастья?  И  дав  что-то  одно,  тут  же  спешат  забрать  что-то  взамен.  От  таких  мыслей  делалось  муторно,  обидно  и  хотелось  крепко  выругаться.

Опанас  натянул  штаны  и  сунул  ноги  в  сапоги.

Он  вырос  сиротой  и,  ведя  любимую  к  алтарю,  мечтал  о  целом  выводке  детворы,  которая  наполнит  его  дом  смехом  и  радостью.  Но,  не  судились.  Сколько  свечей  отнесла  в  церковь  Христя,  сколько  молитв  вымолили  они  вместе  и  по  отдельности.  Ничего  не  помогло.  Хоть  у  Лукавого  проси  помощи.  Или  у  давних  Богов.  Может,  они,  если  не  добрее  Единого,  то  сильнее? 

Опанас  понимал,  что  только  за  одни  такие  мысли  отец  Онуфрий  назвал  бы  его  еретиком,  богохульником  и  мог  предать  вечной  анафеме.  Но,  «мокрый  дождя  не  боится»  —  хуже  не  будет.  Если  некому  оставить  нажитое,  тогда  зачем  жить?  Чего  ради?  А  все  ж  Куница  сперва  перекрестился  на  угол  с  иконами,  и  только  после  этого  несмело  приступил  к  кабаньей  голове.  Положил  руку  на  тонкое  древко  стрелы.  И  то  ли  почувствовал,  то  ли  пригрезилось  ему,  что  оно  будто  ожило,  затрепетало  от  прикосновения  и  тепла  человеческой  ладони. 

—  О,  беспощадный  и  справедливый  Перун!  —  взмолился  истово.  —  Почему,  даруя  моими  руками  жизнь  князю,  ты  не  позволишь  познать  мне  самому  счастье  отцовства?  Это  же  так  просто!  Умоляю  тебя,  Громовержец,  и  тебя,  Морена  —  сжальтесь  над  горемыкой!  Неужели  некому  будет  сомкнуть  мне  в  последний  раз  веки?  Если  я  не  угодил  вам  чем-то,  то  лучше  возьмите  мою  жизнь,  но  не  мучайте  так  жестоко.  Изберите  другое  наказание.  Чтоб  хоть  жена  из-за  меня  не  страдала.  Помилосердствуйте!  Умоляю…

Если  Опанас  надеялся  услышать  что-то  в  ответ,  то  зря  —  ночная  тишина  не  нарушилась  ничем,  кроме  далекого  и  печального  волчьего  воя. 

—  Что  ж,  —  горько  вздохнул  мужчина,  —  значит,  правду  говорит  отец  Онуфрий:  божьи  пути  неисповедимы…  Нет  вам  дела  до  рабов  своих.  —  А  затем  прибавил,  уже  с  обидой  и  каплей  презрения.  —  Вы  и  Роману  Мстиславовичу  жизнь  даровали  лишь  для  того,  чтобы  отобрать.